जे.पी (शांति और क्रांति के अमर योद्धा)
भारतवर्ष में गाँधीजी के बाद जयप्रकाश नारायण ही ऐसे
राजनेता हुए, जो लोकप्रिय होते हुए भी राज सत्ता से दूर रहकर लोक सत्ता, लोक नीति
तथा लोक-चेतना को जीवन पर्यन्त सुदृढ़ करते रहे । देश की आजादी के महासंग्राम में
और स्वतंत्र भारत में भी वे राष्ट्रहित एवं लोकहित के लिए निःस्वार्थ भाव से सदैव
समर्पित थे । उनका जन्म 11 अक्टूबर, 1902 को बिहार के सारण जिले के सिताव दियारा
गाँव में एक सामान्य परिवार में हुआ था । उन्होंने प्रारंभिक शिक्षा गांव के ही
प्राथमिक विद्यालय में पाने के उपरांत मैट्रिक एवं कॉलेज की पढ़ाई पटना में रहकर
पूरी की । अध्ययन काल में ही वे प्रभावती जी के साथ प्रणय-सूत्र में बंध गए । इसके
बाद उच्च शिक्षा प्राप्त करने हेतु वे मई, 1922 में अमेरिका चले गए ।
विदेश से लौटर जयप्रकाश जी ने जैसे ही अपनी मातृभूमि पर कदम
रखा तो उन्हें लगा जैसे दासता की लौह श्रृंखला में आबद्ध भारत माता उन्हें धिक्कार
रही हों, सागर की विवश तरंगें जैसे उन्हें ललकार रही हों और ब्रितानी सल्तनत का
दमन-चक्र उनके सामने चुनौती दे रहा हो । यह वह समय था, जब देश में स्वतंत्रता
आंदोलन चरम पर था । उनका मानस उद्वेलित हो उठा, भुजाएं फड़कने लगीं और उनका यौवन
हुंकार भरने लगा । फलस्वरूप वे आजादी की जंग में कूद गए ।
स्वाधीनता आंदोलन के तूफानी सफर में अनेकों बार वे कारागार
के शिकंजों में जकड़ दिए गए, उन्हें घोर यातनाएं दी गयी, लेकिन उनका सफर रुका नहीं
। बल्कि, और भी तीव्रतर होता गया । कारागार की कालकोठरियों में उत्पन्न उनकी
विप्लवी विचारधारा ने कांग्रेस की नीतियों को नकार दिया और उसी ने मई, 1934 में
जन्म दिया कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी को ।
11 अप्रैल, 1946 को जब लाहौर जेल से उन्हें मुक्ति मिली, उस समय तक वे युवकों और
क्रांतिकारियों का हृदय सम्राट बन चुके थे ।
15 अगस्त, 1947 को विदेशी दासता की बेड़ियां टूट गयीं ।
भारतवासी देश के नव-निर्माण के स्वप्निल सागर में गोते लगा रहे थे, तभी अकस्मात 30
जनवरी, 1948 को बापू की निर्मम हत्या हो गया । जयप्रकाश जी विचलित हो उठे और
गांधीवाद के प्रवाह में बहते चले गए ।
आजाद देश में प्रथम आम चुनाव हुआ । कांग्रेस की सरकार बनी
लेकिन जयप्रकाश जी ने अपने को सत्ता की राजनीति से अलग रखा । उन्होंने कोई चुनाव
नहीं लड़ा । गांधीवाद और समाजवाद के समन्वित मार्ग पर चलते हुए उन्होंने सर्वोदय
की कुटिया में श्रान्ति ली । दलगत राजनीति को त्याग, सादगी, समता और सर्वोदय की
त्रिवेणी में गोते लगाते हुए 19 अप्रैल, 1954 को सर्वोदय के लिए उन्होंने जीवनदान
की घोषणा कर दी ।
राजनीति से अलग रहकर भी जयप्रकाश जी राष्ट्रीय एवं
अंतर्राष्ट्रीय समस्याओं के प्रति सतत् संवेदनशील रहे । लोक-सेवा के लिए सन् 1965
में उन्हें ‘मैग्सेसे
पुरस्कार’ से सम्मानित किया गया ।
सन् 1974 आते-आते देश में तत्कालीन
कांग्रेसी सरकार के विरूद्ध असंतोष की लहर व्याप्त होने लगी । गुजरात में नौजवानों
ने आंदोलन छेड़ दिया । बिहार में छात्रों का असंतोष विस्फोटक हो उठा और छात्रों
एवं युवाओं ने आंदोलन का नेतृत्व संभालने हुतु जयप्रकाश नारायण से आग्रह किया । 9
अप्रैल, 1974 को पटना के गांधी मैदान की एक महती सभी में छात्रों ने जयप्रकाश
नारायण को ‘लोकनायक’ की उपाधि से विभूषित किया । उन्होंने जब आंदोलन का
नेतृत्व स्वीकार करने की घोषणा की तो संपूर्ण देश का राजनैतिक माहौल गरमा गया ।
5 जून, 1974 को पटना के गांधी
मैदान की विशाल ऐतिहासिक सभा में ‘लोकनायक’ ने ‘संपूर्ण क्रांति’ की घोषणा की । 25 जून की रात देश
में आपातकाल लागू कर दिया गया तथा जयप्रकाश नारायण सहित विरोधी दलों के सभी प्रमुख
नेता जेल भेज दिये गये । जेल में वे अस्वस्थ हो गए । क्रमशः उनकी स्थिति नाजुक
होती गया । दिल्ली के अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान और फिर बम्बई के जसलोक
अस्पताल में डायलिसिस के सहारे चिकित्सा चलती रही । जनवरी, 1977 में देश में आम
चुनाव की घोषणा हुई । जयप्रकाश नारायण ने सभी विरोधी दलों को एक मंच पर इकट्ठा
किया, जिसमें भिन्न सिद्धांतों के गठजोड़ से ‘जनता पार्टी’ का जन्म
हुआ और मोरारजी देसाई के प्रधानमंत्रित्व में केन्द्र में जनता सरकार गठित हुई ।
संपूर्ण क्रांति के पुरोधा ‘लोकनायक’ के सपनों का हश्र क्या हुआ । हुआ यही कि कुछ ही
दिनों बाद से उनका मोह भंग होने लगा । उन्हें लगने लगा कि ‘जनता पार्टी’ जनता की
अपेक्षाओं पर खरी नहीं उतर रही । उनके इस चिंतन के साथ-साथ उनके स्वास्थ्य की
स्थिति भी चिंताजनक होने लगी थी । 8 अक्टूबर, 1979 को उनका देहांत हो गया ।
संपूर्ण क्रांति का उनका सपना अब भी अधूरा है । भारत में बेहतर समाज के निर्माण के
लिए उनके इस आंदोलन को सफलीभूत करने की आवश्यकता है ।
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